इस सूक्त में गौ का तथा बैल का विश्वरूप बताया गया हैं। भगवद् गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने अपने विश्वरूप का वर्णन किया हैं, गौ के भी उसी प्रकार के विश्वरूप का इस सूक्त में वर्णन किया हैं। संस्कृत के प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् ग्रिफिथ महोदय कहते हैं कि इस सूक्त में आदर्श बैल और गाय की प्रशंसा की गई है। इस सूक्त पर कई दृष्टियों से विचार किया जा सकता हैं परंतु यहाँ केवल एक दो मुख्य बातें बतलानी हैं। सम्पूर्ण सूक्त के सभी अंशों पर विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। इस सूक्त के विचारणीय अंश नीचे दिये जाते हैं--

 

१ ब्राह्मण और क्षत्रिय विश्वरूपिणी गौ के नितम्ब हैं।

२ गन्धर्व पिंडलियाँ और अप्सराएँ छोटी हड्डियाँ हैं।

३ देवता इसकी गुदा है, मनुष्य आँतें और अन्य प्राणी आमाशय हैं।

४ राक्षस रक्त एवं इतर मनुष्य पेट हैं।

 

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उपर्युक्त मंत्रों से यह भाव दिखलाया गया हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, इतर लोग अर्थात वैश्य, शूद्र, निषाद, गन्धर्व, देवता, अप्सराएँ, मनुष्यमात्र, राक्षस एवं अन्य सभी प्राणी गौ-रूप ही हैं। सम्पूर्ण जनता हृदय से समझे कि हम सब मनुष्य गो माता के ही अङ्ग हैं- इसीलिये इन मंत्रों की अवतारणा की गयी है। इस प्रकार हम लोग गौ माता के शरीर के साथ अपनी एकरूपता देखना सीखें। गौ के शरीर को कष्ट होने पर वह कष्ट हमीं को होगा- यह भाव मन में धारण करें। यदि कोई मनुष्य गौ को कष्ट देता है, उसे काटता है या और तरह से दु:ख देता है तो वह केवल गौ को ही दु:ख देता है तथा गौ के दु:खी रहने पर भी हम सब सुखी रह सकते हैं- यह गलत भाव मन से हटा दें। गौ का हमारे साथ अवयवी और अवयव का सम्बन्ध हैं। हम गौ के ही अंग हैं इसीलिये जो दु:ख गौ को मिलता है, वह हमें भी मिलता हैं- ऐसा मानना चाहिये और इसी भावना से गौ का रक्षण और पालन करना चाहिये। दूसरे शब्दों में स्वयं अपने ऊपर दु:ख आने पर जिस लगन के साथ उसका प्रतिकार किया जाता है, उसी तीव्रता के साथ गौ के कष्टों को दूर करने की चेष्टा होनी चाहिये। गौ का दूध, गोमूत्र, गौ का गोबर, गौ का घृत, दही सभी हमारे शरीर को स्वस्थ बनाते हैं।