mahaprabhujiभगवान् श्री दीपनारायण महाप्रभुजी, श्री देवपुरीजी के उत्तराधिकारी थे, प्रेम, करुणा एवं ज्ञान के महान एवं दिव्य अवतार थे। श्री महाप्रभुजी राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भाग में सन् १८२८ से १९६३ तक जीवित रहे। उनका वचन "प्रत्येक जीवित प्राणी को कम से कम उतना ही प्रेम करो जितना तुम स्वयं से करते हो" सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए उनके स्वर्णिम उपदेशों का सार हैं।
श्री महाप्रभुजी के दिव्य जीवन पर लिखे गये ग्रंथ "लीला-अमृत" में उनके प्राकट्य तथा जीवन काल की घटनाओं तथा शिक्षाओं का वर्णन किया गया हैं।
महाप्रभुजी एक जन्मसिद्व घटनाओं एवं अनुभूत संत थे, उनका जीवन विभिन्न चमत्कारिक घटनाओं तथा कृत्यों से परिपूरित था। अनेक शिष्य, भक्तगण जो अभी तक जीवित है इन चमत्कारों की पुष्टि करते हैं।

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पन्द्रह वर्ष की आयु में श्री महाप्रभुजी को सतगुरु की खोज करने की प्रेरणा हुई, जो आध्यात्मिक गुरु के रुप में विधि तथा परम्परा के अनुसार आत्मज्ञान की दीक्षा दे सकें।
उन्होंने विचार किया कि पूर्वकाल में योगी सिद्व संत थे, जो कि आशीर्वाद मात्र से सिद्वियां व शक्तियाँ प्रदान कर सकते थे। वर्तमान में भगवान शिव स्वयं परम अवधूत सन्यासी श्री देवपुरीजी के रुप में कैलाश में विराजमान हैं।
महाप्रभुजी ने श्री देवपुरीजी के सान्निध्य में रहकर साधना करने का निर्णय किया।
 
ग्राम बडी खाटू के पास दोनों महान आत्माओं का मिलन, दो प्रेम परिपूरित प्रकाश स्त्रोतों के समान हुआ। उस दिन श्री दीपनारायण महाप्रभुजी ने अपनी गायों को चरने के लिए घाटी में छोडा तथा अचानक उन्हें स्वयं भगवान शिव की उपस्थिति, प्रसन्न मुद्रा में प्रतीत हुई। महाप्रभुजी ने भक्तिपूर्वक दण्डवत् प्रणाम किया तथा हाथ जोडकर स्तुति की।

 

 

ॐ नमस्ते श्री गुरु, देवपुरी दयालम्।

निजानन्द, आनन्द, माया के आलम्॥

शरीरं अखंडं हरि रूप जासे।

अतीतं अनादि, निराकार भासे॥

अगम अजोनी, अपार अलिप्तम्।

स्वरूपम् सुशुद्धम्, सदा योगी जप्तम्॥

नमो सर्वव्यापी, गुणातीत देवा।

सदा स्वामी दीप, करे चरण सेवा।

श्री देवपुरीजी महादेव ने आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा, विश्व दीप तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रकाश हो, मैं तथा तुम सदैव एक हैं, मात्र हमारे शरीर भिन्न हैं, आत्मा एक हैं। तुम सत् चित् आनन्द स्वरुप हो। सत सनातन धर्म की परम्परा के अनुसार हमें गुरु-शिष्य का संबंध स्वीकार करेंगे। उसके पश्चात श्री देवपुरीजी ने उन्हें मंत्र-दीक्षा प्रदान की। महान प्रेम व आनन्द के साथ महाप्रभुजी ने दीक्षा ग्रहण की तथा परमगुरु के भजन गाये।

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सन् १९६३ में, १३५ वर्ष की आयु में श्री महाप्रभुजी ने समाधि में प्रवेश किया, वह समय उन्होंने एक वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी द्वारा बता दिया था। उनका सूक्ष्म शरीर अभी भी विराजमान हैं तथा भक्तों के अंत:करण में प्रकाशित ज्योति श्री महाप्रभुजी के नित्य अनुभूत ईश्वरत्व की समानता करती हैं। थार के रेगिस्तान में स्थित श्री महाप्रभुजी का आश्रम बडी खाटू उनके संसार त्याग करते ही तीर्थ बन गया। विश्व के कोने-कोने से भक्तगण उनके पवित्र प्रेम व आशीर्वाद को प्राप्त करने यहाँ अब भी आते हैं।

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"Sri Deva Dungary Sannyas Ashram." Bari Khatu, Rajasthan

श्री देवडूंगरी संन्यास आश्रम - बढी खतु, राजस्थान

 श्री महाप्रभुजी के मानव हितकारी अमूल्य सरल उपदेश