ॐ अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:॥
 
 
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हिन्दु धर्म सम्राट्‍ श्री गुरुदेव का अवतार विक्रम संवत् १९८० के मास भाद्रपद सुदी प्रतिपदा मंगलवार ११ सितंबर १९२३ को पाली जिले के निप्पल ग्राम में हुआ। आपके पिता लालचन्द जी ज्योतिष के विद्वान् थे। श्री गुरुदेव भगवान् श्री कृष्ण के परम उपासक थे, तथा भगवान् श्री कृष्ण के आपको साक्षात् दर्शन हुए थे। श्री दीपनारायण महाप्रभुजी के शिष्य बौद्धानंद जी ने महाप्रभुजी की महिमा का गुणगान माधवानन्द जी गुरुदेव के समक्ष किया। इसके बाद जोधपुर के राइकाबाग के His Holiness (स्थान) में विराजमान श्री महाप्रभुजी से उनका साक्षात्कार हुआ। महाप्रभुजी से आज्ञा लेकर श्री माधवानंद जी गुरुदेव राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र, महाराष्ट्र, कच्छ, मद्रास, मध्यप्रदेश, बिहार, बंगाल, असम, उडीसा व पंजाब में भ्रमण कर सनातन धर्म का प्रचार किया। निप्पल में महाप्रभुजी के धाम की स्थापना की। तथा १३ जुलाई १९६५ में गुरुपूर्णिमा के दिन तत्कालीन राजस्थान के प्रथम मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिया ने महाप्रभुजी की मूर्ति का विधिवत् पूजन कर स्थापना की। गुरुदेव एक अच्छे लेखक भी थे।
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जयपुर आश्रम में गुरुदेवों की  मूर्तियाँ
 
प्रत्येक गुरु का आशीर्वाद अपने शिष्य पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहता ही है। गुरु की महिमा का बखान करते हुए श्रीरामचरितमानस मे लिखा है, कि
 
श्री गुरु पद नख मणिगण ज्योति; सुमिरत दिव्य दृष्टि हिय होती ॥१॥
दलनमोह तम सोशु प्रकाशु; बडे भाग उर आवहि जासु ॥२॥
 
श्री गुरुदेव के चरणों के नख से मणिस्वरुप प्रकाश किरण प्रवाहित होती है, तथा प्रणाम के द्वारा वह प्रकाश मोह और अज्ञान का नाश कर देता है। बडे ही भाग्यशाली होते है, जिनके पास ऐसा प्रकाश आता है।
 Paramhans Swami Madhawanandaji
गुरुदेव के सान्निध्य की प्राप्ति कोई आसान कार्य नहीं है, क्योंकि कहा गया है-
"शीश दीए सतगुरु मिले, तो भी सस्ता जान।" अर्थात् सिर कलम होने पर भी गुरु प्राप्ति हो जाए, तो सस्ता जानना चाहिए। गुरु हमे विद्या तथा अविद्या दोनो मे समंवय करके ज्ञान प्राप्त करना सिखाते है। यथा ईशावास्योपनिषद् मे लिखा है, कि
 
विद्यां च अविद्यां च यस्तद्वेदोभयंसह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा, विद्ययाऽमृतमश्नुते॥
 
विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए।
 
अविद्या अर्थात् (सांसारिक ज्ञान ) होता है, तथा विद्या (आत्म-ज्ञान) होता है। अत: उसी अविद्या से मृत्यु को पार करके हमे विद्या द्वारा अमृत या ज्ञान प्राप्ति करनी चाहिए।